लम्बी लडाई के बाद 26 अक्टूबर को 'घरेलू हिंसा महिला संरक्षण अधिनियम' पारित किया गया, लेकिन क्या इससे घरेलू हिंसा रूक पायी, शायद नहीं। स्थिति पहले जैसी ही है। आज भी बहुयें आत्महत्या या आत्महत्या का प्रयास कर रही हैं। उनका मानसिक, शारीरिक, आर्थिक शोषण अब भी बदस्तूर जारी है। यह किसी असभ्य समाज में नहीं बल्कि सभ्य समाज में घटित होने वाली घटनायें हैं। ऐसी ही एक सभ्य परिवार के बहू की कथा हमारे-आपके सामने है।
मेदनी नगर से महज अठारह किलोमीटर की दूरी पर दादरी गांव है। यह गांव पूरे पलामू जिले में शिक्षा तथा सभ्यता के लिये मशहूर है। दूसरे किसी गांव के ग्रामीण अपनी लडकी को दादरी में ब्याह कर गर्वान्वित होते हैं। हों भी क्यों नहीं, यहां का समाज पढा-लिखा तथा उन्नत जो है। दादरी में एक परिवार दूबे जी का है। परिवार के मुखिया भुनेश्वर दूबे शिक्षक पद से सेवानिव़त होकर पेंशन पा रहे हैं। उनके परिवार में सदस्यों की संख्या ग्यारह है। चार लडके तथा तीन लडकियां हैं। लडकियां शादीशुदा हैं, लडकों में से दो की शादी हो चुकी है दो कुंवारे हैं। शिक्षा देने वाले शिक्षक की मानसिकता पर जरा गौर फरमायें। लडकियों की शिक्षा- दीक्षा की व्यवस्था नदारद है जबकि लडकों को शिक्षा प्राप्त करने में पूरी सहूलियत हासिल है। सेवानिवृति के बाद भी लडकों की सहूलियतों में कोई कमी नहीं की गयी लेकिन लडकियों के ससुराल से घर आते ही घर में पहाड टूट पडता है।
अब इनके घर की बहू पर जरा नजर डालें। गुरू जी का दूसरा लडका मानसिक रोग से रोगग्रस्त है। मां-बाप दोनों लडके की शादी के लिये चिंतित हैं। चिंता में सुन्दर और सुशील बहू की कामना की जा रही है। संयोग से शादी भी हो गयी। ब्याहता लडकी शायद अपने बाप के घर बोझ माफिक ही थी क्योंकि स्थान व व्यक्ति के अंतर से मिजाज में अंतर तो नहीं होता है। शादी काफी धूमधाम से हुई। आंखों में सपने लिये ससुराल में कदम रखते ही लडकी असलियत से अवगत हुयी लेकिन क्या करती बचपन से ही बहू के कर्तव्यों का पाठ रटाया गया था कि जो भी हो, जैसा भी हो वहीं तुम्हारा घर है। टूटते सपनों के बाद गुरू और गुरूवायन की मनमानी शुरू हुई। वर्षों तक मनमानी को लडकी की सहनशाक्ति ने थामे रखा। सहनशक्ति की डोर टूटते ही लडकी अपने नवजात बच्चे के साथ घर छोडकर चली गई। लेकिन कहां, किसी को पता नहीं।
एक शिक्षित, सभ्य, सुसंस्कृत तथा आदर्श गांव की बहू को जब हम जान गये तब दूसरी जगह की बहुओं के बारे में आसानी से समझ सकते हैं। घर छोडकर जाने के बाद गली, मोहल्लों के पुरूष और स्ित्रयों के बीच कानाफूसी पूरे समाज को नंगा करने के लिये काफी है।
मेदनी नगर से महज अठारह किलोमीटर की दूरी पर दादरी गांव है। यह गांव पूरे पलामू जिले में शिक्षा तथा सभ्यता के लिये मशहूर है। दूसरे किसी गांव के ग्रामीण अपनी लडकी को दादरी में ब्याह कर गर्वान्वित होते हैं। हों भी क्यों नहीं, यहां का समाज पढा-लिखा तथा उन्नत जो है। दादरी में एक परिवार दूबे जी का है। परिवार के मुखिया भुनेश्वर दूबे शिक्षक पद से सेवानिव़त होकर पेंशन पा रहे हैं। उनके परिवार में सदस्यों की संख्या ग्यारह है। चार लडके तथा तीन लडकियां हैं। लडकियां शादीशुदा हैं, लडकों में से दो की शादी हो चुकी है दो कुंवारे हैं। शिक्षा देने वाले शिक्षक की मानसिकता पर जरा गौर फरमायें। लडकियों की शिक्षा- दीक्षा की व्यवस्था नदारद है जबकि लडकों को शिक्षा प्राप्त करने में पूरी सहूलियत हासिल है। सेवानिवृति के बाद भी लडकों की सहूलियतों में कोई कमी नहीं की गयी लेकिन लडकियों के ससुराल से घर आते ही घर में पहाड टूट पडता है।
अब इनके घर की बहू पर जरा नजर डालें। गुरू जी का दूसरा लडका मानसिक रोग से रोगग्रस्त है। मां-बाप दोनों लडके की शादी के लिये चिंतित हैं। चिंता में सुन्दर और सुशील बहू की कामना की जा रही है। संयोग से शादी भी हो गयी। ब्याहता लडकी शायद अपने बाप के घर बोझ माफिक ही थी क्योंकि स्थान व व्यक्ति के अंतर से मिजाज में अंतर तो नहीं होता है। शादी काफी धूमधाम से हुई। आंखों में सपने लिये ससुराल में कदम रखते ही लडकी असलियत से अवगत हुयी लेकिन क्या करती बचपन से ही बहू के कर्तव्यों का पाठ रटाया गया था कि जो भी हो, जैसा भी हो वहीं तुम्हारा घर है। टूटते सपनों के बाद गुरू और गुरूवायन की मनमानी शुरू हुई। वर्षों तक मनमानी को लडकी की सहनशाक्ति ने थामे रखा। सहनशक्ति की डोर टूटते ही लडकी अपने नवजात बच्चे के साथ घर छोडकर चली गई। लेकिन कहां, किसी को पता नहीं।
एक शिक्षित, सभ्य, सुसंस्कृत तथा आदर्श गांव की बहू को जब हम जान गये तब दूसरी जगह की बहुओं के बारे में आसानी से समझ सकते हैं। घर छोडकर जाने के बाद गली, मोहल्लों के पुरूष और स्ित्रयों के बीच कानाफूसी पूरे समाज को नंगा करने के लिये काफी है।
2 comments:
सभ्य समाज के असभ्य लोगो की दास्तां सचमुच इस समाज की नंगी सच्चाई है,कानून के क्रियान्यवन हो जाने के बाद भी समाज की कुरूपता खत्म होने का नाम नही ले रही है..उदाहरणो की लंबी लाईने हैं. समाज के पहरुए के घर मे भी ऐसी वारदाते हो रही है.
कदम उठाने की आवश्यकता है...वह चाहे कलम से हो या फिर क्रांति के जरिए.
आपका.
गिरीन्द्र
समाज जागृति के लिए लाख कागजी अभियान चला, विभिन्न मीडिया स्तंभों में इस पर चर्चे देखने को मिले... मगर इस पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता अभी भी रुढिवादी खूंटे से बंधी ही हुई है।
गुंजनजी, आपने समाज के जहन में व्याप्त इस मुद्दे को बड़े अच्छे ढ़ंग से उठाया है...
पता नहीं यह विडंबना कब तक हमारे साथ चलेगी...
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